भाषा संवाद के माध्यम से कहीं
बढ़कर मानवता की बुनियाद बेहद जरूरी है
दुनिया की तमाम भाषाओं के इस बगीचे में प्रत्येक भाषा के पौधे की जड़ें
मजबूत होने के साथ ही वह खूबसूरत फलों-फूलों से भी लदा हो।
आज पूरी दुनिया 19वां अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मना रही है
आज पूरी
दुनिया 19वां अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मना रही है। इस अवसर पर
यूनेस्को की महानिदेशक ने अपने संदेश से हमें स्मरण कराया है कि ‘भाषा संवाद के माध्यम से कहीं बढ़कर मानवता की एक बेहद जरूरी
बुनियाद है। हमारे मूल्य, हमारी
मान्यताएं और हमारी पहचान इसमें सन्निहित हैं।’
भाषा एक
भावनात्मक मुद्दा है
भाषा एक
भावनात्मक मुद्दा है, क्योंकि
यह हमारे सामाजिक जीवन से जुड़ी है। यह भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति में सशक्त
बनाती है। यह सामूहिक पहचान और बंधुता की भावना को बढ़ाती है। हम अपने विचारों को
अपनी मातृभाषा में कहीं बेहतर तरीके से व्यक्त कर सकते हैं। यदि बच्चों को उनकी
मातृभाषा में पढ़ाया जाए तो उसके कहीं बेहतर नतीजे हासिल होते हैं। पहले उपनिवेशवाद
और बाद में भूमंडलीकरण के चलते तमाम भाषाएं दबाव में आ गई हैं। हर एक पखवाडे़ में
दुनिया की कोई न कोई भाषा दम तोड़ रही है। इस पर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 16 मई, 2007 को एक
संकल्प पारित कर सभी देशों का आह्वान किया कि वे दुनिया भर में लोगों द्वारा
प्रयुक्त की जाने वाली भाषाओं के संरक्षण को प्रोत्साहन दें। उसी संकल्प के माध्यम
से विविध भाषाओं और बहुसंस्कृतियों के माध्यम से विविधता में एकता और
अंतरराष्ट्रीय समझ को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2008 को ‘अंतरराष्ट्रीय भाषा वर्ष’ के तौर
पर मनाने का फैसला किया गया।
भाषा संस्कृति की जीवनरेखा होती है
हम
बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषी दुनिया में रह रहे हैं। हमें दुनिया की इस बहुभाषी
संस्कृति को सहेजने की दरकार है और इसका सबसे बेहतर तरीका यही है कि प्रत्येक भाषा
को संरक्षित करने के साथ ही उसे समुचित रूप से उन्नत बनाया जाए। महात्मा गांधी ने
भी इसकी हिमायत की थी। भारत ने हमेशा विविधता और बहुलता में विश्वास किया है। हमने
सभी भाषाओं को सम्मान दिया है। चूंकि भाषा और संस्कृति दोनों में अंतर्संबंध हैं, लिहाजा हमें अपनी देशज भाषाओं को भी मजबूत बनाने की जरूरत
है। इनमें वे तमाम भाषा-बोलियां भी शामिल होंगी जो देश में कई आदिवासी समूहों
द्वारा प्रयोग की जाती हैं। भाषा किसी संस्कृति की जीवनरेखा होती है और एक तरह से
समाज के व्यापक परिवेश को परिभाषित भी करती है। भाषा केवल संचार में ही अहम भूमिका
नहीं निभाती, बल्कि सहभाषियों को एक धागे में
पिरोने का भी काम करती है। यह एक सामूहिक पहचान देने के साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों
के एक आवश्यक तत्व का निर्माण करती है। किसी भाषा की कहावतें जब एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी को हस्तांतरित होती हैं तो वे उस समाज की रस्मों, रिवाजों और मूल्यों को प्रतिध्वनित करती हैं। इस वर्ष की थीम
भले ही ‘सतत विकास के लिए लैंगिक विविधता और बहुभाषिक गणना’ हो, लेकिन जो
विषय मेरे दिल के बेहद नजदीक है और जिसकी मैं अरसे से हिमायत करता आया हूं वह थी 2012 की थीम ‘मातृभाषा
शिक्षण एवं समावेशी शिक्षा’।
भारत
विविध भाषाओं और संस्कृतियों का संगम स्थल है
भारत
विविध भाषाओं और संस्कृतियों का संगम स्थल है। चूंकि अधिसंख्यक भारतीय हिंदी बोलते
हैं तो इसे देश की लिंगुआ फ्रैंका यानी आम भाषा कह सकते हैं। वहीं तेलुगू और
बंगाली भी व्यापक स्तर बोली जाने वाली भाषाएं हैं, लेकिन
संभवत: तमिल दुनिया की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है। इसी तरह देश के तमाम
इलाकों में बहुत तरह की भाषा एवं बोलियां उस इलाके की भाषाई समृद्धि को व्यक्त
करती हैं। मातृभाषा को प्रोत्साहन देना सबसे महत्वपूर्ण है। कोई बच्चा किसी अन्य
भाषा की तुलना में अपनी मातृभाषा में बेहतर तरीके से सीख सकता है। वह अपने विचारों
को भी मातृभाषा में प्रभावी तरीके से व्यक्त कर सकता है। मैं जोर देता आया हूं कि
सभी राज्य सरकारें कम से कम स्कूल स्तर पर मातृभाषा विषय को अनिवार्य बनाएं। मुझे
इस बात की खुशी है कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के अलावा कुछ अन्य राज्यों ने भी
आगामी अकादमिक वर्ष से तेलुगू को स्कूल में अनिवार्य विषय के तौर पर शामिल करने का
फैसला किया है। मैं आशा करता हूं कि अन्य राज्य भी इसका अनुसरण करेंगे। विविधता और
समावेशन को बढ़ावा देने के लिए अन्य भाषाओं को भी प्रोत्साहन दिया जा सकता है।
लोगों को
अपनी मातृभाषा में व्यवहार करने पर गर्व महसूस होना चाहिए
मातृभाषा
का वृहद स्तर पर प्रोत्साहन साक्षरता के विस्तार का सर्वोत्तम विकल्प हो सकता है।
यदि मातृभाषा में क्षमताएं निखरती हैं तो किसी छात्र द्वारा अन्य भाषाओं को सीखने
की संभावनाएं भी बढ़ती हैं। ब्रिटिश राज के चलते शिक्षा के माध्यम के रूप में
अंग्र्रेजी के चलन ने जोर पकड़ा और यह प्रमुख संस्थानों से लेकर सरकारी दफ्तरों की
भाषा बन गई। अफसोस की बात यह है कि तमाम लोग विशेषकर वे जो शहरी खांचे में शिक्षित
और अभिजात्य संस्थानों से निकले हैं, अपनी
मातृभाषा को लिखने-पढ़ने में भी सक्षम नहीं हैं। इस अवांछित रुझान की धारा को पलटना
होगा और लोगों को अपनी मातृभाषा में व्यवहार करने पर गर्व महसूस होना चाहिए।
मातृभाषा
बोलने में गर्व की अनुभूति होनी चाहिए
दुनियाभर
में लोग न केवल अपनी मातृभाषा बोलने में गर्व की अनुभूति करते हैं, बल्कि उसके प्रचार-प्रसार की कोशिश भी करते हैं। मैं खुद ऐसे
विदेशी गणमान्य लोगों के संपर्क में रहता हूं जो अंग्र्रेजी में दक्ष होने के
बावजूद अपनी मातृभाषा में संवाद को वरीयता देते हैं। रूस, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, चीन, जर्मनी
और ईरान जैसे तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्ष अपनी भाषा में ही संवाद करते हैं। ऐसा
इसीलिए, क्योंकि उन्हें अपनी भाषा में बात करने पर गर्व होता है। वे
भाषा को राष्ट्रीय पहचान से जोड़कर देखते हैं
अपनी
मातृभाषा को सीखने के साथ ही अधिकाधिक भाषाओं को सीखने का प्रयास करें। अपने
बच्चों को पहले मातृभाषा और बाद में दूसरी भाषाओं से जोड़कर हमें अपनी बहुभाषी और
सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करना चाहिए। हमें यह समझने की जरूरत है कि बहुभाषी एवं
बहुसांस्कृतिक विश्व की संकल्पना केवल मातृभाषाओं को मजबूत करने से ही साकार हो
सकती है।
मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए
दुनिया
की तमाम भाषाओं के इस बगीचे में प्रत्येक भाषा के पौधे की जड़ें मजबूत होने के साथ
ही वह खूबसूरत फलों-फूलों से भी लदा हो। हमें ऐसा ढांचा चाहिए जहां मातृभाषा में
शिक्षा दी जाए, भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन
देने वाला प्रकाशन उद्योग हो और ऐसा इंटरनेट तंत्र हो जो विविध भारतीय भाषाओं में
संचार और ज्ञान के हस्तांतरण को संभव बनाए। इसके लिए व्यक्ति और समूह को कंधे से
कंधा मिलाकर काम करना होगा। यही भारतीय दर्शन का मूल भी है। यही हमें अखिल भारतीय
और वैश्विक नागरिक बनाने में मददगार साबित होगा।