हाल ही में मुंबई हाईकोर्ट ने कई
शैक्षणिक बोर्डों से कहा कि वे दसवीं के छात्रों के लिए गणित को वैकल्पिक विषय
बनाने पर विचार करें, जिससे
उन्हें बिना गणित के कला और दूसरे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए प्रेरणा मिलेगी।
न्यायालय ने पाया कि दसवीं के बाद गणित और भाषा की परीक्षा में पास न हो पाने की
वजह से बहुत से छात्र पढ़ाई छोड़ देते हैं। मुंबई हाईकोर्ट की सलाह विचारणीय है। इस
सलाह के पीछे, वे प्रश्न भी छिपे हैं, जिन्हें हमने कभी ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की।
गणित और
विज्ञान विषयों को हमारी शिक्षण पद्धति ने बोझ बनाकर रख दिया है। इन विषयों को
बच्चों की बौद्धिक क्षमता से जोड़कर देखना ठीक नहीं होगा। प्राथमिक स्तर पर ही रटंत
विद्या की प्रक्रिया पूरी शिक्षा को नीरस बना देती है। चूंकि गणित और विज्ञान में
तार्किकता का महत्व है, इसलिए इन
विषयों को रुचिकर बनाने के लिए नए शोध और सोच की जरूरत है, परंतु भारतीय शिक्षा पद्धति आज भी ब्लैक बोर्ड से ऊपर नहीं
उठ पाई है। ड्रॉपआउट के मुद्दे पर शिक्षाविद् चिंतित दिखते हैं, पर सच तो यह है कि कागजों पर नामांकित बच्चों में से भी
कितने ही कक्षा से गायब रहते हैं। दरअसल, हमारी
शिक्षा प्रणाली ही नहीं, सामाजिक
पृष्ठभूमि भी पूर्वाग्रही है, जिसमें
विज्ञान, गणित और उसकी विभिन्न शाखाओं से जुड़े विषय प्रतिभा के मानक
माने जाते हैैं और साहित्य, कला, सामाजिक विज्ञान जैसे विषय लेने वाले विद्यार्थी प्रतिभाहीन।
हम यह नहीं समझ पाए हैं कि हर विषय की अपनी उपयोगिता होती है और कोई भी विषय दूसरे
से कमतर नहीं होता। हर विषय की जानकारी जरूरी है, परंतु
किस स्तर तक, यह एक शोध का विषय है। भाषा व
गणित का ज्ञान उस सीमा तक तो जरूरी है, जिससे
रोजमर्रा के कार्य बाधित न हों, परंतु
इससे अधिक पढ़ना या न पढ़ना बच्चे का खुद का चुनाव होना चाहिए। स्वभावगत विषयों का
चुनाव, शिक्षा के प्रति भय को तो कम करता ही है, बच्चे की क्षमताओं का विकास भी करता है।
भारत की स्कूली शिक्षा को किताबों के बोझ से मुक्त करने की
जरूरत है। बच्चों को परीक्षा की फैक्टरी में धकेलने से बेहतर है कि उनकी संचार, कौशल तथा अन्य क्षमताएं विकसित की जाएं। सबसे पहले तो ‘ज्ञान’ देने के
लिए रटने की परंपरा त्यागनी होगी। शिक्षा देने के साधन इतने मनोरंजक बनाने होंगे
कि वे बच्चों के भीतर अधिक से अधिक जिज्ञासा का भाव उत्पन्न कर सकें। इस संदर्भ
में फिनलैंड का उदाहरण ले सकते हैं, जहां
अंग्रेजी सिखाने के लिए बच्चों को अंग्रेजी भाषा के गाने सिखाए जाते हैं। संगीत
में रच-बसकर बच्चे शब्दों के अर्थ, उच्चारण
और उनका प्रयोग करना सीख जाते हैं।
प्रारंभिक
शिक्षा के बाद वोकेशनल स्कूल का विकल्प होता है, जिसके कोर्स बच्चों को आत्मनिर्भर बनाते हैं। इसके लिए हेयर
डिजाइनिंग, कैफेटेरिया सर्विसेज और मैसोन
(राज मिस्त्री) जैसे विषयों में दो साल के कोर्स हैं। इन वैकल्पिक विषयों के प्रति
झुकाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा के बाद 40 प्रतिशत लड़कियां और 58 प्रतिशत
लड़के इन वोकेशनल स्कूलों में दाखिला लेते हैं। हम शिक्षा के किसी भी पहलू की बात
करें, उसका मुख्य उद्देश्य आत्मविश्वास पैदा करना और जीविकोपार्जन
के लिए सक्षम बनाना है। और इन दोनों दृष्टियों से हमारी शिक्षा-व्यवस्था
नाकाम रही है। क्या इन परिस्थितियों में यह बेहतर नहीं होगा कि व्यावसायिक या कौशल
प्रशिक्षण को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया जाए। ऐसे कार्यक्रम बच्चों को
शिक्षित करने के साथ उन्हें आर्थिक निर्भरता की ओर भी ले जाएंगे। संभव है कि इस
संदर्भ में तर्क यह दिया जाए कि अल्पायु में बच्चों को किसी रोजगार विशेष की ओर
प्रवृत्त करना गलत होगा। यह पक्ष पूर्णतया अतर्कसंगत नहीं है, पर जब आर्थिक स्वावलंबन व जीविकोपार्जन का प्रश्न हो, तो भारतीय परिप्रेक्ष्य, विशेषकर
ग्रामीण व निर्धन परिवारों के लिए किताबी शिक्षा दोयम हो जाती है। हर देश की अपनी
प्राथमिकताएं और आवश्कताएं होती हैं, उसी के
अनुरूप वहां की शिक्षण व्यवस्था का ढांचा होना चाहिए। वषार्ें से चली आ रही
शिक्षा-पद्धति की उपयोगिता के संबंध में नए सिरे से चर्चा करने का अब समय आ गया
है।
ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)